केरल में कन्नूर या कन्ननोर से मात्र २० किलो मीटर की दूरी पर उत्तर की ओर पहाड़ी की तलहटी में एक गाँव है परस्सनिकडवु. जहाँ वालपट्नम नामक नदी के आकर्षक किनारे पर बना हुआ है एक विशाल मंदिर और जिस देवता के लिए यह समर्पित है वह हैं मुथप्पन. एक ऐसा देव जिसे भूंजी हुई सूखी मछलियों और मदिरा से संतुष्ट किया जा सकता है. यही यहाँ का भोग है. कुछ वर्षों पूर्व तक यहाँ पहुँचने के लिए नदी पर नाव से जाना पड़ता था पर अब पहाड़ियों पर से सड़क बना दी गयी है जिससे आवागमन सुविधाजनक हो गया है.
मूलतः यह मुथप्पन थिय्या नामक जाति के लोगों के इश्ट देव हैं और इस देव के छोटे छोटे अनेकों मंदिर उत्तरी केरल में मिलते हैं. संभवतः यह मंदिर एक जनजातीय परंपरा का आधुनिक रूप बन गया है. वैदिक परंपरा के पूर्व से ही उनके वनों में अपने देवी देवता थे और उनसे ही वे संतुष्ट रहे. स्मरण रहे की आज़ादी के पूर्व तक शूद्र आदि के लिए हमारे मंदिर वर्जित रहे क्योंकि उनपर तो समाज के उच्च वर्ग का एकाधिकार था. ऐसे में अपना दुखड़ा रोने वे कहाँ जाते. अब मुथप्पन को शिव और विष्णु का संयुक्त रूप माना जाता है परंतु इसे कालभैरव संबोधित करना युक्ति संगत होगा. आप कुछ भी कह लें वहाँ के लोगों के लिए वह उनका मुथप्पन ही रहेगा. मलयालम में मुथप्पन का शब्दार्थ दादाजी होता है. पुरखों की पूजा करने की प्रथा भी वहाँ के जन जातियों में प्रचलित है.
इस मंदिर के उत्पत्ति की कई कहानियाँ मिलती हैं और उनमे से वहाँ की परंपरा के अनुसार बताई जाने वाली कुछ इस प्रकार है. अय्यनकरा नामक ग्राम में एक ब्राह्मण ज़मींदार रहता था. उसकी कोई संतान नहीं थी. पत्नी “पदिकुट्टी” शिव भक्त थी. एक दिन स्वप्न में भगवान के दर्शन भी हुए. दूसरे ही दिन नदी से स्नान कर लौटते समय पुष्प शैय्या पर लिटा हुआ एक नन्हा बालक दिख गया जिसे वह घर लाकर अपने पुत्र की तरह लालन पालन करने लगी. बालक बड़ा होते ही तीर धनुष ले जंगल में शिकार करने निकल पड़ता है. यही उसकी दिनचर्या हो गयी. जाते समय अपने साथ ख़ान पान के पदार्थ भी ले जाता जिसे वह ग़रीबों तथा पिछड़े लोगों में बाँट देता. क्योंकि बालक की गतिविधियाँ ब्राह्मणोचित नहीं थी, उसके माता पिता उसे समझाया करते परंतु वह अपनी मन मानी करता ही गया. इससे उसके माता पिता में भारी निराशा घर कर गयी.एक दिन बालक अपने माता पिता के समक्ष धनुष बाण से सुसज्जित होकर, लाल लाल आँखें लिए, हुए दिव्य रूप में प्रकट हो जाता है. माता पिता उसे देवता मान कर दंडवत हो जाते हैं. अब यह देव स्वरूपी बालक उन्हें आशीर्वाद दे अय्यनकरा छोड़ कुन्नातूर पहाड़ी पर जंगल की ओर निकल जाता है. इसके आगे की कहानी बड़ी मजेदार है.
जंगल में नारियल के पेड़ थे जिनके सिरे पर मटकी बाँध कर ताड़ी (मदिरा) उतारी जाती थी. यह काम चंदन नामका एक थिय्या करता था. (थिय्या जाति के लोगों का मूल व्यवसाय नारियल के पेड़ों से ताड़ी निकालना होता था). अब हमारे यह देवता को मदिरा का शौक लग जाता है. हर रोज पेड़ पर चढ़ कर मटका सॉफ कर दिया करते थे. चंदन तो ताक में था ही, एक रात उसने देखा कि पेड़ पर एक बुड्ढा चढ़ा हुआ है. गुस्से में आकर अपने धनुष को निकालता है परंतु तीर चलाने के पहले ही बेहोश हो धरती पर गिर पड़ता है. सुबह जब चंदन घर नहीं पहुँचता तो उसकी पत्नी उसे ढूंडते हुए आ जाती है और अपने पति को बेहोश अवस्था में पाकर ऊपर देखती है. पेड़ पर एक बुड्ढे को देख मदद के लिए चिल्ला पड़ती है, मुथप्पा मुथप्पा (दादाजी दादाजी) और ईश्वर से भी प्रार्थना करती है. चंदन को मुथप्पा ठीक कर देता है और प्रतिफल स्वरूप चंदन की पत्नी उसे मदिरा, उबले चने और नारियल के टुकड़े देकर अपना आभार जताती है. पति पत्नी द्वारा अनुरोध किए जाने पर अपना यह मुथप्पन कुन्नातूर में ही रहने लगता है. कुछ दिनों वहाँ रह लेने के बाद वह अपने मूल उद्देश्य (अवतरित होने) की पूर्ति के लिए उपयुक्त स्थल की खोज में एक तीर चलाता है जो नदी के किनारे परस्सनिकडवु में जाकर गिरती है, जहाँ आज मुथप्पन का प्रसिद्ध मंदिर बना हुआ है. लघु संस्कृतियों के शास्त्रीय संस्कृतियों में अपने मूल तत्त्व बरकरार रख मिलने का एक और उदाहरण.
पुराना मंदिर छोटा सा है परंतु जो विस्तार कार्य हुआ है उसके तहत, एक बड़े भारी हाल में वह छोटा मंदिर समाविष्ट हो गया. दर्शनार्थियों के लिए आवास सुविधा भी निःशुल्क उपलब्ध है. एक ओर लोगों के बैठने की भी व्यवस्था है. पुजारी भी स्थानीय और उन्हीं वर्गों से है. जैसा कि कहा जा चुका है चढ़ावे के रूप में भूनी हुई सूखी मछलियाँ तथा मदिरा अर्पित की जाती है. यहाँ मुथप्पन स्वयं मदिरा पान नहीं करते जैसा कि उज्जैन के काल भैरव के मंदिर में कराया जाता है. यहाँ पूजा आदि भी स्थानीय थिय्या समाज के लोग ही करते हैं. पूजारी मदिरा पान करके बाहर निकलता है, मुथप्पन का वेश धारण कर और मंदिर के सामनेचक्कर लगाता है. इसे भी थीयम कहते हैं. इस मंदिर में भक्तों का सीधे भगवान के साथ संवाद भी होता है, पुजारी की मध्यस्थता में. आपकी समस्याओं के लिए सधे हुए उत्तर भी मिलेंगे. प्रत्येक दर्शनार्थी को हाल में बिठा कर एक दोने में उबला हुआ साबूत मूँग दाल (महाराष्ट्र का ऊसल) दिया जाता है और साथ में मिलती है एक कप चाय. है ना मज़े की बात. यहाँ के कुत्ते भी पूजनीय होते हैं क्योंकि मुथप्पन के वे बड़े प्रिय हैं. उन्हें खाने के लिए चढ़ावे की मछलियाँ मिल जाती हैं.
साधारणतया केरल के मंदिरों में गैर हिन्दुओं का प्रवेश प्रतिबंधित रहता है परन्तु मुथप्पन के मन्दिर में ऐसी कोई वर्जना नहीं है. (अय्यप्पन के मंदिरों में भी यही बात लागू होती है) यहाँ के स्थानीय मुसलमानों या ईसाईयों को मुथप्पन से परहेज भी नहीं है. औरों की तरह वे भी सपरिवार यहां देखे जा सकते हैं, “वसुदेव कुटुम्बकम” को चरितार्थ करते हुए.
मुथप्पन मंदिर से जुड़ी एक बड़ी महत्व्पूर्ण बात तो रह ही गयी. यह मंदिर अपने थीयम के लिए प्रख्यात है. थीयम, कथकली से मिलता जुलता एक लोक नृत्य है, नृत्य नाटिका कहना अधिक उपयुक्त होगा. इसके कलाकार विभिन्न पौराणिक पात्रों की भूमिका में रंग बिरंगे , आकर्षक अद्भुत अलन्करण से युक्त वेश भूषा में कथाओं को प्रस्तुत करते हैं जो स्थानीय वान्नान समाज के होते हैं. यह कुछ कुछ कर्नाटक के यक्ष गान से भी मिलता है. साधारणतया थीयम का मंचन साप्ताह में दो बार होता है और उत्सव के समय तो कहना ही क्या. इसके अतिरिक्त आप १००० रुपये का शुल्क एक दिन पूर्व जमा करवा कर अपने लिए किसी भी दिन मंचन की व्यवस्था भी करा सकते हैं. यह लोक कला किसी समय केवल ग्रामीण आँचलों में ही सीमित थी परंतु आजकल इसका मंचन बड़े शहरों, यहाँ तक की दुबई में भी होने लगा है. नीचे थीयम पर एक वीडियो भी दिया गया है जिससे थीयम की थोड़ी सी अनुभूति हो सके.
चित्र: विकीमीडियाकामन्स
फ़रवरी 3, 2009 को 6:41 पूर्वाह्न
बहुत ही रोचक जानकारी के लिये आभार। यदि आप अपने आलेख में उस स्थान तक पहुंचने,ठहरने,व आने-जाने के उपलब्ध साधनों के बारे में भी बता दिया करें तो सोने में सुहागा हो जाय। हार्दिक आभार।
फ़रवरी 3, 2009 को 6:41 पूर्वाह्न
केरल के देवता के बारे मे जान कर अच्छा लगा . हमारे यहाँ भैरो बाबा को मदिरा चडाई जाती है इतबार को विशेष महत्व है .
फ़रवरी 3, 2009 को 7:00 पूर्वाह्न
बहुत ही जानकारी भरा आलेख. ’थीयम’ के बारे में एकदम से नहीं जानता था. आपका आभार
फ़रवरी 3, 2009 को 7:43 पूर्वाह्न
अच्छी और रोचक जानकारी दी है आपने ! हमारे यहाँ भी भैरों व माँ काली को मदिरा व बकरे चढाये जाते है बाद में बकरे को प्रसाद के रूप में मांस बना कर वितरित कर दिया जाता है |
फ़रवरी 3, 2009 को 8:10 पूर्वाह्न
मुथप्पन की जानकारी रोचक रही -उज्जैन के काल भैरव भी तो मदिरा प्रेमी हैं -मदिरा प्रेमी देवताओं के उद्भव पर शोध की जरूरत है !
फ़रवरी 3, 2009 को 8:14 पूर्वाह्न
आपके द्वारा इन महत्वपूर्ण लेखो के बारे में पूर्व सूचित करने के लिए आपका आभारी हूँ ! सादर अभिवादन !
फ़रवरी 3, 2009 को 8:22 पूर्वाह्न
रोचक जानकारी के लिये आभार। थीयम के बारे मेँ पहली बार पता चला। ऐसे लेख पढ कर वहां जाने की इच्छा जागृत हो जाती है।
एक बात की तरफ विनम्रता से ध्यान दिलाना चाहता हूं। ताड़ी, ताड़ के पेड़ से निकला हुआ द्रव्य है, जो सूर्य की किरणों के पड़ते जाने से नशीला होता जाता है। सूर्योदय के पहले या भोर में इसे निकाल लेने से यह एक ताजगी दायक पेय के रूप में काम आता है।
नारियल के पेड़ में लगने वाले फल, जिसे डाब भी कहते हैं, में कभी भी नशा नहीं होता। दोनो पेड़ों का स्वरुप एक जैसा ही होता है सिवाय इसके कि नारियल का पेड़ ज्यादा ऊंचा होता है।
फ़रवरी 3, 2009 को 8:38 पूर्वाह्न
अप तो अनमोल खज़ाने के धनी हैं । यूं ही अपने अनुभव के मोती लुटाते रहिए और हम सभी को सम्रद्ध कीजिए ।
फ़रवरी 3, 2009 को 9:07 पूर्वाह्न
“Muthappan” jaise kai ‘Gram Devta’ is desh ke gavon mein milenge, jo hamare ‘tribal’ ateet ko darshate haie. Inhiko shayad aage ‘Aaryakaran’ ya ‘shastriya’ roop dediya gaya. Aisi jaankariyon ke sangrahan ki aavashyakta hai.
फ़रवरी 3, 2009 को 9:34 पूर्वाह्न
्रोचक जानकारि के लिये धन्यवाद थीयम भी बहुत अछा लगा वसे तो अधिक घूमने फिरने का अवसर नहीं मिला आपके आलेख के माध्यम से ही दर्शन कर लेते हैं धन्यवाद्
फ़रवरी 3, 2009 को 10:00 पूर्वाह्न
सुंदर चित्रों के साथ ही साथ बहुत ही रोचक जानकारी मिली………पता नहीं हर जगह सिर्फ देवियों को ही मदिरा और मांस का चढावा क्यों आवश्यक होता है ?
फ़रवरी 3, 2009 को 10:04 पूर्वाह्न
अत्यन्त रोचक जानकारी मिली.
ताडी केरल में बहुत प्रसिद्व है और शायद ग्रामीण क्षेत्र के हर घर में बनाई जाती है.
जैसे गोवा में फेनी का चलन है.
थियम या इसी तरह की अन्य लोक कलाओं का दुबई में मंचन होता रहता है ख़ास कर पर्वों पर, जैसे केरल परवी आदि क्योंकि यहाँ केरल वासियों की बड़ी संख्या है.आज ‘थियम’ के बारे में विस्तृत जानकारी मिली.इस के लिए आप का आभार.
फ़रवरी 3, 2009 को 10:57 पूर्वाह्न
देश की सांस्कृतिक और भोगोलिक विविधता के बीच से आपने बहुत सुंदर विषय उठाते हुए उसके साथ न्याय किया है, मज़ा आया।
फ़रवरी 3, 2009 को 11:02 पूर्वाह्न
केरल के मन्दिर.. वाह भाई वाह!!!!!
फ़रवरी 3, 2009 को 11:03 पूर्वाह्न
फिर से लिखना पड़ेगा, जानकारी के लिए आभार, बहुत ही सुन्दर रोचक जानकारी. 🙂
ऐसी टिप्पणी बारबार लिखने का मौका दें.
फ़रवरी 3, 2009 को 12:00 अपराह्न
आपने बहुत ही अच्छी जानकारी दी है । संगीता पुरी जी ने एक सवाल किया है, पता नहीं हर जगह सिर्फ देवियो को ही मदिरा और मांस का चढ़ावा क्यों आवश्यक होता है ? इस टिप्पणी के द्वारा मै बता दू कि केवल उन्हीं देवियो को मांस मदिरा का प्रसाद चढाया जाता है जो राक्षसों का संहार करती है । जिस देवी का रूप ब्रह्म और शान्त स्वरूप है जैसे लक्ष्मी ,सरस्वती आदि को इसका प्रसाद नही लगता है ?
फ़रवरी 3, 2009 को 12:12 अपराह्न
बहुत बढ़िया जानकारी मिली इस लेख के माध्यम से कई नई बातें पता चली …बहुत सी बातो से हम अपने ही देश में अनजान है रोचक लगी यह पोस्ट
फ़रवरी 3, 2009 को 12:52 अपराह्न
भरपूर जानकारी.लघु संस्कृतियों के शास्त्रीय संस्कृतियों में अपने मूल तत्त्व बरकरार रख मिलने का एक और उदाहरण.
फ़रवरी 3, 2009 को 1:00 अपराह्न
इस अद्भुत जानकारी के लिये शुक्रिया…मैं तो अब तक यही समझता था कि हमारे भैंरो बाबा ही एकलौते देव हैं जिन पर शराब चढ़्या जाता है…
यूं ही नयी जानकारियों से अवगत कराते रहें..
फ़रवरी 3, 2009 को 1:39 अपराह्न
बहुत ही नयी जानकारी दी आपने .थीयम के बारे में पहली बार पता चला. लगता है अपने देश को कितना कम जानते हैं हम.आशा है आप हमें ऐसे ही भारत की सैर कराते रहेंगे.
फ़रवरी 3, 2009 को 1:39 अपराह्न
बहुत ही सुन्दर और ज्ञानवर्ध्दक जानकारी है। पूरा दक्षिण भारत ऐसे अनेक स्थनों से भरा है। कृपया इसी प्रकार प्रत्येक की जानकारी से लाभान्वित करें। सुन्दर संग्रह बन जाएगा। लोक अंचलों के ऐसे वर्णन भौगोलिक दूरियां कम करते हैं।
आपके परिश्रम को नमन।
फ़रवरी 3, 2009 को 1:46 अपराह्न
शुक्रिया. आपने एक और ठीया बता दिया जहाँ अपन धुनी रमा सकते हैं. वैसे आपने बहुत उम्दा जानकारी दी है. उत्तर भारतीय परम्परा से जोड कर देखें तो इनकी कथा बटुक भैरव के एक रूप से मिलती-जुलती सी है.
फ़रवरी 3, 2009 को 2:50 अपराह्न
एक और संस्कृति से परिचय कराने के लिए आभार। कभी हम जैसों को भी यात्रा में साथ ले लिया कीजिए।
फ़रवरी 3, 2009 को 3:15 अपराह्न
भारत संस्क्रती का एक और बेजोड़ नमूना …केरल के देवता की बहुत ही रोचक जानकारी के लिये आभार। पता नही इस जीवन मे इतना कुछ प्रत्यक्ष देख पायेंगे या नही….लकिन ऐसे आलेखों के जरिये चित्रों सहित जो जानकारी मिल रही है वो सराहनीय है ”
Regards
फ़रवरी 3, 2009 को 3:21 अपराह्न
बहुत रोचक पोस्ट। कालभैरव का मन्दिर शहर के बाहर – जंगल में होता है, जैसे उज्जैन में। क्या मुत्थप्पन का मन्दिर भी वैसे ही है। यह तो भव्य प्रतीत होता है। कालभैरव का मन्दिर तो अब भी अरणय में है।
फ़रवरी 3, 2009 को 3:51 अपराह्न
बहुत ही सुंदर जानकारी दी, आप ने, आप ने हमेशा की तरह से हमे उन दुर्लभ जगहओ के बरे बताया, जिन्हे हम सोच भी नहॊ सकते, केरल तो वेसे भी बहुत सुंदर है सुना है, ओर यहां के लोग भी शान्ति प्रिय , सीधे साधे है, थियम के बारे पढ कर, चित्र देख कर ओर विडियो देख कर मन लालचा गया, कभी मोका मिला तो जरुर केरल भी घुमे गे.हर जगह की अपनी अपनी मान्यता है.
आप का धन्यवाद इस खुबसुरत जानकारी देने के लिये
फ़रवरी 3, 2009 को 4:35 अपराह्न
Rochak jankari uplabdha karayi hai apne.
फ़रवरी 3, 2009 को 4:40 अपराह्न
शुक्रिया. शुक्रिया. शुक्रिया. शुक्रिया. शुक्रिया.
धन्यवाद् धन्यवाद् धन्यवाद् धन्यवाद् धन्यवाद्
आपने बहुत उम्दा जानकारी दी है.
फ़रवरी 3, 2009 को 6:02 अपराह्न
bahut rochak. jankari aur varnan jo kiya kya kahane, bhai bahut khub
फ़रवरी 3, 2009 को 6:35 अपराह्न
सुब्रमनियम जी,
बड़े ही काम की जानकारी दी है आज तो आपने. इस तरह के मंदिर वगैरा भारत में जगह जगह पर हैं. उनकी अपनी अपनी अलग पहचान है.
फ़रवरी 3, 2009 को 6:40 अपराह्न
very intersting. hamare desh ke kone kone se aisi rochak jaankari dhoondh kar laane aur hamare saath baantne ke liye aabhar
फ़रवरी 3, 2009 को 7:20 अपराह्न
बहुत ही सुन्दर और रोचक जनकारी दी आपने संसकृति और परम्पराओं के बारे मे. कभी कभी डिसकवरी चैनल पर देखा है थियम के बारे मे. आज आपने विस्तृत जानकारी दी. बहुत धन्यवाद आपको.
रामराम.
फ़रवरी 3, 2009 को 7:46 अपराह्न
दिलचस्प आलेख .ओर एक नया ज्ञान चक्षु भी खुला
फ़रवरी 4, 2009 को 12:36 पूर्वाह्न
बहुत रोचक जानकारी, कभी मन में कन्नूर जाने की बड़ी इच्छा थी, अगर आगे समय मिला तो यह अवश्य देखूँगा!
फ़रवरी 4, 2009 को 12:56 पूर्वाह्न
फोटो सुन्दर हैं, जानकारी नई। देने के लिए धन्यवाद।
घुघूतीबासूती
फ़रवरी 4, 2009 को 2:25 पूर्वाह्न
अत्यंत रोचक जानकारी है। जैसा कि एक टिप्पणी में मदिरा का चढ़ावे के विषय में लिखा है, यह एक अन्य विषय है। पा.ना. सुब्रमणियम जी ने तथ्य दिए हैं जिसकी रोचकता में कोई शक नहीं – एक जानकारी है। वीडियो से तो रोचकता और भी बढ़ गई है।
फ़रवरी 4, 2009 को 9:22 पूर्वाह्न
नई और रोचक जानकारी देने का शुक्रिया ।
दिल्ली मे प्रगति मैदान के सामने बने भैरों बाबा के मन्दिर मे भी मदिरा ही चडाई जाती है और मन्दिर के बाहर भी अधिकतर लोग मदिरा के नशे मे ही झूमते दीखते है । हालाँकि हम बस एक बार ही गए है उस मन्दिर मे ।
फ़रवरी 4, 2009 को 11:37 पूर्वाह्न
सांस्कृतिक महत्व की जानकारी हेतु हार्दिक आभार।
फ़रवरी 4, 2009 को 2:05 अपराह्न
बहुत बढिया एवं जानकारी वर्ध्दक लेख।
दीपक भारतदीप
फ़रवरी 4, 2009 को 5:06 अपराह्न
घर बैठे ही भारत की विविधा संस्कृति की दुर्लभ जानकारी मिली, आभार. ऐसे ही और लेखों की प्रतीक्षा है.
फ़रवरी 5, 2009 को 1:22 पूर्वाह्न
चलिये केरला का भी ट्रिप पक्का हो गया !! ऐसे ही देश दुनिया के रोचक तथ्य बताते रहिये. ..
फ़रवरी 5, 2009 को 11:39 पूर्वाह्न
भारतीय अतीत और संस्कृति के विभिन्न अनछुए पहलुओं को जिस प्रकार इस ब्लॉग के माध्यम से उजागर आप करते रहे हैं उसकी जितनी प्रशंशा की जाए वह कम होगी.
फ़रवरी 5, 2009 को 11:54 पूर्वाह्न
bahut sundar jaankari, jameen se judi huyi, anand aa gaya. wah. shabd nahi hain mere paas.
फ़रवरी 5, 2009 को 4:18 अपराह्न
मुथप्पा मुथप्पा
मजा आओलेवो अच्छा लिखोछे
हमकू मालूम बी ना थो ई बात
हम बी आपको मदिरा, उबले चने और नारियल के टुकड़े देकर अपना आभार जताते हैं
फ़रवरी 5, 2009 को 10:45 अपराह्न
हर बार की तरह एक नई और रोचक जानकारी….पता नहीं कहां से लाते हैं…आप ये सब…
फ़रवरी 5, 2009 को 11:06 अपराह्न
वाह दादा वाह………… हमेशा की तरह नयी जानकारी..
फ़रवरी 6, 2009 को 7:12 पूर्वाह्न
Fascinating , historic facts – Thanx Subhramaniyam jee
फ़रवरी 6, 2009 को 12:25 अपराह्न
बहुत बढिया जानकारी दी है।चित्र भी बहुत अच्छे हैं।आभार।
फ़रवरी 6, 2009 को 7:07 अपराह्न
बेहतरीन जानकारी और खूबसूरत तस्वीरों को प्रस्तुत करने के लिए एक बार पुन: धन्यवाद,
वाकई लोक देवी देवताओं का रचना संसार जितना विस्तृत है उनके वारे में जानना उतना ही रोचक ।
फ़रवरी 7, 2009 को 1:08 अपराह्न
बहुत सुन्दर और रोचकता से लबरेज़ ये पोस्ट रही आपकी पी. एन. साहब। केरल के मंदिरों का सचित्र वर्णन आनन्द प्रदान कर गया। ताड़ी जो होती है वो ताड़ के पेड़ से भी निकाली जाती है दक्षिण कर्नाटक आदि में। बहुत आभार आपका।
फ़रवरी 7, 2009 को 8:52 अपराह्न
मदिरा और मांस का भोग लगाना और उसे प्रसाद रूप में ग्रहण करना अच्छी प्रथा नहीं कही जा सकती.
फ़रवरी 9, 2009 को 7:00 अपराह्न
मुझ जैसे हिन्दुस्तान के वैविध्य के विध्यार्थी के लिये तो यह आलेख एक वरदान निकला. आभार!!
कभी कण्णूर जायेंगे तो जरूर जाकर देखेंगे.
सस्नेह — शास्त्री
फ़रवरी 12, 2009 को 7:35 पूर्वाह्न
मुथप्पन की जानकारी रोचक रही!!
बेहतरीन जानकारी और खूबसूरत तस्वीरों को प्रस्तुत करने के लिए एक बार पुन: धन्यवाद,
वाकई लोक देवी देवताओं का रचना संसार जितना विस्तृत है उनके वारे में जानना उतना ही रोचक !!!
बहुत ही सुन्दर और रोचक जनकारी दी आपने संसकृति और परम्पराओं के बारे मे!!!!
मार्च 30, 2009 को 6:04 पूर्वाह्न
[…] (Cannanore) में कुछ दिन रुकना हुआ था और तभी हम मदिरा प्रिय मुथप्पन के मन्दिर जा पाये थे. हमलोगों को उडुपी आकर्षित […]
मार्च 30, 2009 को 3:32 अपराह्न
बहुत सुंदर ब्लोग है आपका, और विषय भी बहुत ही बढ़िया है। जहां तक मैं जानता हूं हिंदी में दक्षिण भारत के मंदिरों और धार्मिक रीति-रिवाजों पर यह एकमात्र ब्लोग है।
मैं चाहूंगा कि आप और स्थलों के बारे में भी पाठकों को जानकारी दें – गुरुवायूर, वैकोम, तिरुवनंतपुरम का पद्मनाभन मंदिर आदि, आदि। इन मंदिरों से जुड़े स्थल कथाओं पर अच्छे लेख तैयार किए जा सकते हैं।
इसी तरह कथकली, रामनाट्टम, कृष्णाट्टम, आदि पर और दक्षिण के मंदिरों के मशहूर हाथियों के ऊपर, जैसे गुरुवायूर के केशवन, तथा केरल के वाद्ययंत्रों पर बढ़िया लेख बन सकते हैं।
मार्च 30, 2009 को 3:38 अपराह्न
हेमंतपांडेय से मैं कहना चाहूंगा कि देवी-देवताओं को मदिरा और मांस का भोग लगाना भारत में काफी प्राचीन परंपरा रही है। इसकी जड़ें उत्तरकालीन बौद्धमत में खोजी जा सकती हैं, जो आगे चलकर तंत्रवाद के रूप में प्रकट हुआ। इससे भी पहले वैदिक उपासना में गाय, घोड़े, बकरी आदि की बली यज्ञों के दौरान दी जाती थी। इस हिंसा को रुकवाने के लिए ही बौद्ध और जैन जैसे नास्तिक धर्मों का उद्भव हुआ।
अभी भी अनेक मंदिरों में मुर्गी, बकरी, काली भैंस आदि की बलि दी जाती है। प्रसिद्ध अंग्रेजी लेखक नीरद चौधरी की आत्मकथा में दुर्गा पूजा के समय उनके घर के मंदिर में काली को एक भैंस के बलि चढ़ाने की वीभत्स प्रसंग का वर्णन है।
कहा जाता है कि वैदिक ऋषि सोम रस के प्रेमी थे, जो एक प्रकार की मदिरा ही है।
अप्रैल 2, 2009 को 6:03 पूर्वाह्न
[…] (Mangrove Forest) के जंगल हैं. यही वो नदी है जो मुथप्पा के मन्दिर के किनारे से गुजरती […]
जून 9, 2009 को 7:25 अपराह्न
Dear Friends
I’m from Cannonore,from Muthappans’s village,we belivie him a lots,becoz lots of blessing from him..it’s our real life experience.
he is entirely diff from other god,he eat fish and drink toddy. for perfoming pooja and prayer we produce them.
But he is our favorate god,he was avathara of shiva.
in our place Muttapan is first god more than anyting….
even my life i have lots of live experience and blessing from muthappa.
Thanks
Ashok Kannur
जून 13, 2009 को 8:11 अपराह्न
As a resident from Kannur, Muthappan’s Origin , i can definitely say that he (Muthappan) is making a big influence in our day to day life. I can simply say that an average ‘Malabari’ is using his name at least once a day. For me, my day is starting and ending with my muthappan pray. Because right now I’m in Dubai. So I miss these kind of thins too much.
If you visit the Muthappan temple in Parassinikadave, you can feel the relation between Muthappan and a common man.
सितम्बर 29, 2010 को 4:57 अपराह्न
Muthyappan ki puri jankari bahu hi achchi lagi.
सितम्बर 25, 2011 को 8:42 पूर्वाह्न
Bharat ki sanskriti ka ek alg hi aadhar hai,joki samst world se alag hai.